देहरादून। आज देशभर में सुहागिन महिलाओं ने वट सावित्री पूजन कर अपने पति की लंबी उम्र के लिए आशीर्वाद मांगा। उत्तराखण्ड में भी व्रत को लेकर महिलाओं में खासा उत्साह देखने को मिला। इस दौरान सुबह से ही मंदिरों में महिलाओं द्वारा पूजा अर्चना की गयी। वहीं कई जगहों पर कार्यक्रम आयोजित कर महिलाओं ने भजन-कीर्तन आदि किए। पिथौरागढ़ की बात करें तो यहां नगर के पुल्ड आवास में पंकज पाण्डे व कालसिन-भूमिया मंदिर पितरौटा में नीरज जोशी व बसंत पाण्डे ने विधि-विधान से वट सावित्री का पूजन संपन्न कराया। इसके बाद सुहागिनों ने वट वृक्ष पर रक्षा धागा बांध अखंड सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद लिया।
बता दें कि हिंदू धर्म में वट सावित्री व्रत का महत्व करवाचौथ व्रत जितना ही माना गया है। इस व्रत में वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। मान्यताओं के अनुसार वट वृक्ष में त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास होता है। इस दिन महिलाऐं व्रत रखती हैं और बरगद के पेड़ पर रोली लपेट कर परिक्रमा करती हैं।
मान्यताओं के अनुसार सावित्री ने वट वृक्ष के नीचे ही अपने पति सत्यवान को पुनः जीवित किया था। तब से इस व्रत को वट सावित्री व्रत के नाम से जाना जाता है। इस दिन महिलाएं व्रत रखती हैं और त्रिदेव के सामने अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं। माना जाता है कि जो भी महिला इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करती है उसके पति को सुख-समृद्धि, अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घायु प्राप्त होती है।
वट सावित्री व्रत कथा: मान्यताओं के अनुसार पुराने समय में मद्र देश के राजा अश्वपति संतान के सुख से वंचित थे। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए सावित्री देवी की पूजा की और यज्ञ करवाया। इसके बाद उनके घर में कन्या का जन्म हुआ और राजा को संतान सुख की प्राप्ति हुई। राजा ने देवी के नाम पर ही अपनी पुत्री का नाम भी सावित्री रखा। सावित्री रूप और गुण की बेहद धनी थी। जवान होने पर सावित्री को साल्व देश के राजा के पुत्र सत्यवान से प्रेम हो गया। वहीं सत्यवान भी सावित्री के प्रेम में पड़ गए थे। फिर सावित्री के युवा होने पर एक दिन अश्वपति ने मंत्री के साथ उन्हें वर चुनने के लिए भेजा। जब वह सत्यवान को वर चुनने के बाद आईं। तो उसी समय देवर्षि नारद ने सभी को बताया कि महाराज द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की विवाह के 12 वर्ष पश्चात उनकी मृत्यु हो जाएगी। इसे सुनकर राजा ने पुत्री सावित्री से किसी दूसरे वर को चुनने के लिए कहा मगर सावित्री नहीं मानी।
नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञात करने के बाद वह पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगीं। नारदजी ने जो सत्यवान की मृत्यु का समय बताया था। उसके करीब आने के कुछ समय पूर्व से ही सावित्री ने व्रत रखना शुरू कर दिया था। जब यमराज उनके पति सत्यवान को साथ लेने आए तो सावित्री भी उनके साथ चल दीं। इस पर यमराज ने उनकी धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर वर मांगने के लिए कहा। तो सावित्री ने सबसे पहले अपने नेत्रहीन सास-ससुर के आंखों की ज्योति और दीर्घायु की कामना की।
वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने व्रत के प्रभाव से मृत पड़े सत्यवान को दोबारा जीवित किया कर दिया था। वट के वृक्ष ने ही अपनी जटाओं में सावित्री के पति सत्यवान के मृत शरीर को सुरक्षित रखा था ताकि कोई उसे नुकसान न पहुंचा सके। इसलिए वट सावित्री के व्रत में काफी समय से बरगद के पेड़ की पूजा होती आ रही है। उसी समय से इस व्रत को वति सावित्री के नाम से जाना जाता है। इसमें वट वृक्ष की श्रद्धा भक्ति के साथ पूजा की जाती है। सुहागन महिलाएं अपने सुहाग और कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं। सुहागन स्त्रियां श्रद्धा और सच्चे मन के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक उपवास रखती हैं।